हर साल 5 जून को पूरी दुनिया में विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है. इस दिन का मुख्य उद्देश्य पर्यावरण के प्रति जागरुकता फैलाना है. लेकिन आज के दिन उस शख्स को भी जानना जरूरी है जिसने अपना पूरा जीवन पेड़ों को दे दिया, जिन्हें वे अपना परिवार मानते थे. यही कारण था कि पूरे देश में वे वृक्ष मानव के रूप में जाने जाते थे.
उनका जन्म टिहरी गढ़वाल जनपद की सकलाना पट्टी में 2 जून, 1922 में हुआ था. ऐसे समय में जब पूरे देश में अंग्रेजी हुकूमत के काले कानूनों के खिलाफ आंदोलन चल रहे थे. विशेषकर जल, जंगल, जमीन के सवालों को लेकर.
विश्वेश्वर दत्त सकलानी को जानने वाले बताते हैं कि उन्होंने पहला वृक्ष आठ साल की अवस्था में लगा दिया था. उनकी पहली पत्नी कर मृत्यु 1958 में हो गई थी, उन्होंने उनकी याद का चिरस्थाई रखने के लिये वृक्ष लगाना ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया. इसमें उनकी दूसरी पत्नी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उन्हें इस काम में परेशानियां भी कम नहीं हुई.
शुरुआत में गांव के लोगों को भी लगा कि जिन जगहों पर वे पेड़ लगा रहे हैं, उसे कहीं कब्जा न लें. लेकिन बाद में लोगों की बात समझ में आई. एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के अलावा सकलानी जी के पास हिमालय के संसाधनों को बचाने की एक समझ थी. उन्होंने अपने गांव में नागेन्द्र सकलानी जी के नाम पर ‘नागेन्द्र वन’ के नाम से एक जंगल खड़ा किया.
वृक्ष मानव कहलाते थे विश्वेश्वर दत्त सकलानी
इस जंगल में उन्होंने जंगलों की परंपरागत समझ और जैव विविधता को बनाये रखते हुये सघन वृक्षारोपण किया. उनके इस वन में बाज, बुरांस, देवदार, सेमल, भीमल के अलावा चौड़ी पत्ती के पेड़ों की बड़ी संख्या थी. गांधीवादी विचारधारा को आत्मसात करते हुये बिना प्रचार-प्रसार वे अपना काम करते रहे. बताते हैं कि उन्होंने इस क्षेत्र में 50 लाख से अधिक पेड़ लगाये. उनके इस काम को देखते हुये उन्हें ‘वृक्ष मानव’ की उपाधि दी गई.
‘ पेड़ काटना जुर्म है, पेड़ लगाना नहीं ‘
तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें ‘इंदिरा प्रियदर्शिनी वृक्ष सम्मान’ दिया. भारत के प्रधानमंत्री द्वारा सम्मानित किये जाने के बावजूद वन विभाग ने उन पर वन क्षेत्र में पेड़ लगाने को अतिक्रमण माना और उन पर मुकदमा चलाया. उस समय में जाने-माने कम्युनिस्ट नेता विद्यासागर नौटियाल ने टिहरी अदालत में उनकी पैरवी की. उन्होंने कोर्ट में यह साबित किया कि ‘पेड़ काटना जुर्म है, पेड़ लगाना नहीं.
संभवतः 1990 में उन्हें वन विभाग के मुकदमे से मुक्ति मिली. उनका काम इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि उन्होंने एक ऐसे क्षेत्र में हरित भूमि बनाने में योदान किया जहां की जमीन बहुत पथरीली थी.
आजादी के दौर और आजादी के बाद प्राकृतिक संसाधनों को बचाने की जो भी मुहिम चली उसमें सकलानी जी की महत्वपूर्ण भूमिका रही. सत्तर के दशक में उत्तराखंउ में वनों को बचाने को लेकर शुरू हुये ‘चिपको आंदोलन’ में सुन्दरलाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट के साथ उनकी बराबर भागीदारी रही. 18 जनवरी 2019 को विश्वेश्वर दत्त सकलानी का 98 साल की उम्र में निधन हो गया
उनके आखिरी शब्द- “वृक्ष मेरे माता-पिता, वृक्ष मेरी संतान, वृक्ष ही मेरे सगे साथी”