देहरादून: देहरादून का घंटाघर इस शहर की पहचान है. जहां आज घंटाघर है, वहां पहले कभी पानी की दो टंकी और तांगा स्टेंड हुआ करता था. इस इमारत के बनने को लेकर भी कई किस्से कहानियां हैं. जिन्हें आप इस लेख में पढ़ेंगे.
लाला बलबीर न्यायाधीश व इस शहर के जाने माने रईस थे, श्रीमति मनभरी देवी उनकी पत्नि और आनंद सिंह उनके लड़के हुए. 22 सितम्बर 1936 को रईस बलबीर की मृत्यु हो गई. आनंद सिंह ने अपने रईस व न्यायाधीश पिता बलबीर सिंह की समृति में ’’बलबीर क्लाक टावर’’ निर्माण का प्रस्ताव सीटी बोर्ड को दिया.
उस समय आनंद स्वरूप गर्ग सीटी बोर्ड के अध्यक्ष थे.
जिसके बाद प्रतिष्ठा की आपसी प्रतिद्वंदिता के चलते शहर के दूसरे रईसों को यह बात रास नही आई कि किसी दूसरे रईस की स्मृति में इस शहर के क्लाक टावर का निर्माण हो. जिस कारण इसके निर्माण में भूमि के स्वमित्व, ठेकेदार की कोटेशन, तांगा चालकों का विवाद आदि को लेकर निर्माण रोकने के लिए कई तरह की रुकावटें खड़ी करने की कोशिशें की गई. तत्कालीन जिलाधिकारी व सुपरिटेंडेंट ऑफ दून तटस्थ रहे. सीटी बोर्ड अध्यक्ष श्री आनंद स्वरूप गर्ग नगर की सुन्दरता के लिये इस निर्माण के पक्षधर रहे थे.
उन्होंने तमाम पेचीदगियां सुलझाते हुये आनन्द सिंह जी को यह युक्ति भी सुझाई कि वे इस घंटाघर के निर्माण के शिलान्यास के लिये यूपी की तत्कालीन गवर्नर श्रीमति सरोजनी नायडू को तैयार कर लें तो सारी अड़चनें स्वतः ही समाप्त हो जायेंगी. श्रीमति सरोजनी नायडू से शिलान्यास करवाने में आनंद सिंह सफल हुये. इस प्रकार 24 जुलाई सन् 1948 को महामाननीया गर्वनर सरोजनी नायडू ने ’’बलबीर क्लाक टावर’’ का शिलान्यास किया.
इसके ठेकेदार ईश्वरी प्रसाद चौधरी नत्थूलाल व नरेन्द्र देव सिंघल रहे. वहीं वास्तुकार हरिराम मित्तल व रामलाल थे. पहले इसका डिजाइन चकोर था जो बाद में षट्कोणीय किया गया. जिसके लिये पूर्व में स्वीकृत बजट में मात्र 900 रूपये की बढ़ोत्तरी की गई थी.
इस प्रकार अस्सी फीट ऊंचा अनूठे किस्म का घंटाघर बना, जिसका नाम ’’बलबीर क्लाक टावर’’ रखा गया. यह षट्कोणीय है जिसमें प्रवेश के लिये 6 दरवाजे हैं उपर जाने के लिये गोल घुमावदार सीढी है. छह कोनों में छह घड़ियां लगी जो उस समय स्वीटजरजलेंड से भारीभरकम मशीनों के साथ लायी गई थी.
इसके निर्माण के लिये श्रीमती सनभरी और उनके परिवार ने पच्चीस हजार रुपये दान में दिये थे, जिसका पत्थर आज भी वहां लगा हुआ है. 23 अक्तूबर 1953 की शाम के पौने पांच बजे तत्कालीन रेल यातायात मंत्री भारत सरकार माननीय लाल बहादुर शास्त्री जी ने इस घंटाघर का लोकार्पण किया. जिसके बाद उसी दिन इसे नगर पालिका को सौंप दिया गया. उस समय श्री केशव चंद नगर पालिका के अघ्यक्ष थे. इसी समय वहां घंटाघर की सामने प्रकाश टॉकीज भी बना, जिसका नाम बाद में बदलकर दिग्विजय हुआ.
आज इसकी घड़ियां बदल कर इलेक्ट्रानिक घड़ियां लगा दी गई हैं. प्राचीन घड़ियों को सुरक्षित ना रख पाना अपनी विरासत को सुरक्षित ना रख पाने की तरह है. कम से कम पुरानी घड़ियों की मशीनों को तो सुरक्षित अजायब घर में रखा ही जा सकता था. अभी पीपल का पुराना पेड़ शहर के कुछ जागरूक शहरियों के कारण खड़ा है वरना उस पर भी निजाम की कुदृष्टि बनी हुई है. इलाके के साथ छेड़छाड़ जारी है. पता नही विकास के नाम पर ये हकुमतें हमारी प्राचीन धरोहरों को क्यों नष्ट करने पर उतारू हैं. राज्य और राज्य की राजधानी बनने से देहरादून की धरोहरों का काफी नुकसान हुआ है.
स्रोत : राज्य अभिलेखागार देहरादून एवं घण्टाघर में लगा पत्थर