चिट्ठी और डाकिया
श्रीमती हिमांशु शर्मा, ऋषिकेश
चिट्ठी और डाकिए का मानो
जनम- जनम का साथ है ।
खाकी वर्दी , कांधे पर झोला
और चिट्ठी उसके हाथ है।
दिन के, बारह बजते ही
डाकिया आया करता था
टेलीग्राम,मनीऑर्डर ,चिट्ठी ले लो
शोर मचाया करता था।
लगता था ,दरवाजे पर
कोई मेहमान आया है ।
कपड़े के, झोले में भरकर
खुशियां हजार लाया है।
सर्दी ,गर्मी या बरसात
वो सब के, दरवाजे जाता था।
जो नहीं जानता, पढ़ना -लिखना
उसे पढ़ कर, भी सुनाता था।
कभी हंसाती, तो कभी
रुलाती थी, चिट्ठियां ।
दूर गए ,अपनों को
पास लाती थी चिट्ठियां।
किसी की, चिट्ठी में दुख- सुख
किसी में ,मोहब्बत होती थी ।
कोई , हंसता, जोर-जोर से
तो किसी की ,आंखें रोती थी।
चिट्ठी के जरिये ,प्यार का
इजहार होता था।
बड़ी बेसब्री से ,जवाब का
इंतजार होता था।
छुप -छुप कर अकेले में
चिट्ठियों का पढ़ना।
कभी होठों पर मुस्कान
तो कभी ,आंसुओं का उमड़़ना।
अब न जाने कहां,
लुप्त ,हुई भावनाएं ।
दिल हुए पाषाण के
बेसब्र, हुई कामनाएं ।
अब नहीं ,कोई किसी का
इंतजार करता है ।
कपड़ॊं की तरह रोज
रिश्तों को बदलता है।
चिट्ठियों ने हमेंशा
धीरज ,संयम,अपनापन सिखाया।
और मोबाइल ने उतावलापन
बेचैनी और अकेला रहना सिखाया।
देखते ही देखते मोबाइल की
ऐसी ,आंधी आई।
छीन लिया ,चिट्ठियों का हक
ऐसी ,मची तबाही।
जानती हूं जीवन में
परिवर्तन ,बेहद जरूरी है ।
पर नये की खातिर
पुराना बिसरा दो
ये कैसी ,मजबूरी है ।
बड़ी खुशनसीब हूं मैं
जो,मेरे पिताजी की,
चिट्ठी , आज भीआती है।
मेरा वजूद ,सदा रहेगा
यही संदेश ,मुझे दे जाती है ।
उनकी चिट्ठियां ,मेरे लिए
सबसे ,अनमोल खजाना।
उम्मीद, अभी भी कायम है
कभी तो ,लौट कर आएगा
चिट्ठी का ,वही पुराना जमाना।
फिर से बैठकर चिट्ठियों का
इंतजार, किया करेंगे ।
अपने दिल की बातों का
इजहार किया करेंगे।
धरोहर समझ के उनको
अपने पास रखूंगी ।
उसमें लिखी, हर बात को
हमेशा याद रखूंगी।
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