पिछला वर्ष रोजगार वर्ष था, तो क्या यह वर्ष बेरोजगारी वर्ष होगा?

प्रतिकात्मक चित्र
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इंद्रेश मैखुरी, राजनीतिक कार्यकर्ता

उत्तराखंड सरकार ने वर्ष 2019 को रोजगार वर्ष घोषित किया था. इस साल को लगता है कि वह बेरोजगारी वर्ष बनाना चाहती है. ऐसा इसलिए लगता है क्यूंकि खर्च कम करने के लिए उत्तराखंड के मुख्य सचिव द्वारा जो पत्र जारी किया गया है,उसमें नयी नियुक्तियों पर रोक लगाने की बात कही गयी है.

नियुक्तियों पर रोक ऐसे समय में लगाई जा रही है,जब पूरी दुनिया कोरोना के संक्रमण से जूझ रही है. तमाम व्यवसाय ठप्प पड़ चुके हैं और बड़ी तादाद में लोग अपना रोजगार खो चुके हैं और खो रहे हैं. तमाम अर्थशास्त्री, केंद्र सरकार को सलाह दे रहे हैं कि लोगों की क्रय शक्ति बढ़ाने के लिए राजकोषीय घाटे की परवाह किए बिना, लोगों को नकद धनराशि दे. जब आर्थिक दशा को सुधारने के लिए इस अति की सीमा से बढ़ कर उपाय करने की जरूरत है,तब रिक्त पदों पर रोक लगाने जैसे कदम दर्शाते हैं कि आम जन को बदहाली से उभारने में उत्तराखंड सरकार की कोई रुचि नहीं है.

नियुक्तियों पर रोक लगाने के पीछे वही घिसा-पिटा तर्क है कि सरकार का खर्च कम करना है. लेकिन उत्तराखंड सरकार के “मितव्ययता” के फटे ढोल की पोल मुख्य सचिव उत्पल कुमार सिंह के 10जून के पत्र से ही खुल जाती है. पत्र के बिन्दु संख्या 2 में मुख्य सचिव,नए पदों को सृजित न किए जाने और नियत वेतन, दैनिक वेतन, संविदा आदि के आधार पर कर्मचारी नियुक्ति पर पूर्ण प्रतिबंध की बात कहते हैं.

लेकिन इसी पत्र के बिन्दु संख्या 5 में मुख्य सचिव लिखते हैं कि विभिन्न विभागों मेंसलाहकार, अध्यक्ष, सदस्य आदि अस्थायी प्रकृति के पदों पर की जाने वाली नियुक्तियों के लिए सहयोगी स्टाफ की व्यवस्था के लिए कोई पद सृजित न किया जाये. मतलब साफ है कि राजनीतिक पहुँच-पहचान वालों और सत्ता के चहेतों को विभिन्न विभागों मेंसलाहकार, अध्यक्ष, सदस्य आदि बनाने पर कोई रोक नहीं होगी.

जिनको सिर्फ सत्ता से करीबी की वजह से सरकारी महकमों में सलाहकार, अध्यक्ष, सदस्य आदि नियुक्त किया जाता है,उनमें से हर एक के वेतन, भत्ते, गाड़ी आदि पर प्रति माह लाखों रुपया खर्च होता है. इस अनावश्यक खर्च के जारी रहने की मंशा,मुख्य सचिव के “व्यय प्रबंधन एवं प्रशासनिक व्यय मेंमितव्ययता हेतु वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिए दिशानिर्देश” शीर्षक वाले पत्र में स्पष्ट होती है.

उत्तराखंड सरकार का इरादा समझिए. इरादामितव्ययता कतई नहीं है. मितव्ययता यदि इरादा होता तो सलाहकार, अध्यक्ष, सदस्य से जैसे सजावटी और राजनीतिक तुष्टि के लिए दिये जाने वाले पदों पर नियुक्ति हालात सुधरने तक रोकने के आदेश किए जाते.


ऐसे सजावटी पदों पर नियुक्त होने वालों को भाजपा नाम देती है-दायित्वधारी. इन तथाकथित दायित्वधारियों का यही दायित्व होता है कि वे सरकारी धन और सुविधाओं का उपभोग पूरी मुस्तैदी से करें. मितव्ययता संबंधी मुख्य सचिव के पत्र से यह ध्वनित होता है कि सरकारी विभागों का काम, बिना कर्मचारियों के तो चल सकता है, लेकिन सरकारी सुविधायों के उपभोग के दायित्व के प्रति मुस्तैद दायित्वधारियोंके बिना सरकार एक कदम भी नहीं चल सकेगी ! इसलिए कर्मचारियों को वेतन देना फिजूलखर्ची है और दायित्वधारियों को सरकारी धन और सुविधाओं का उपभोग “आवश्यक शासकीय दायित्व” ! मितव्ययता और आवश्यक खर्च की क्या अद्भुत समझदारी है,मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत और उनके मुख्य सचिव उत्पल कुमार सिंह की !

और देखिये मितव्ययता की बात कौन कर रहा है ! वही सरकार जो 2010 से उत्तराखंड हाई कोर्ट,नैनीताल में पूर्व मुख्यमंत्रियों को दिये गए निशुल्क आवासों का किराया न वसूले जाने का मुकदमा लड़ रही थी. बीते साल, जब उच्च न्यायालय ने निशुल्क आवास का उपभोग करने वाले पूर्व मुख्यमंत्रियों से बाजार भाव से किराया वसूल करने का फैसला सुनाया तो उच्च नयायालय के फैसले को पलटने के लिए उत्तराखंड सरकार बकायदा एक कानून ले कर आ गयी.

उस कानून को उच्च न्यायालय ने असंवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया. इस मामले से साफ है कि सरकार जिन्हें अपना समझती है,उनकी सुख सुविधाओं के लिए वह किसी भी हद तक जा सकती है. लेकिन जो सरकार बनाते हैं यानि मतदाता,वे सरकार के लिए बेगाने हैं और उन्हें रोजगार देना, सरकार को फिजूलखर्ची प्रतीत होता है !

बेरोजगारों को रोजगार देने पर रोक लगाने का आदेश उन मुख्य सचिव उत्पल कुमार सिंह के हस्ताक्षर से निकला है,जिनके बारे में कुछ दिनों पहले समाचार पत्रों में चर्चा थी कि उनके पोस्टरिटायरमेंट सैटलमेंट यानि सेवानिवृत्ति के बाद भी वेतन-भत्ते, गाड़ी-बंगले के सरकारी खर्च का बंदोबस्त हो चुका है.

उत्तराखंड में संभवतः दो-एक अपवादों को छोड़ कर कोई मुख्य सचिव रिटायर हो कर घर नहीं गया बल्कि रिटायरमेंट के बाद नियुक्ति का इंतजाम, सेवानिवृत्ति के महीनों पहल किए जाने का चलन है. विद्रूप देखिये जिन अफसरों को प्रदेश के मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव जैसे भारी-भरकम पदों से रिटायरमेंट के तत्काल बाद सरकारी पद का इंतजाम चाहिए,वे संविदा, नियत वेतन, दैनिक वेतन पर बेरोजगारों की नियुक्ति को सरकारी धन की बरबादी समझते हैं और मितव्ययता के जुमले तले बेरोजगारों के रोजगार पाने के सपने को कुचल डालना चाहते हैं.

जिन मुख्य सचिव ने इस वर्ष मितव्ययता के नाम पर सभी प्रकार की नियुक्तियों और नए पदों के सृजन पर रोक का आदेश निकाला है, उन्हीं मुख्य सचिव ने बीते साल अफसरों को निर्देशित किया था कि यदि संविदा या नियत वेतन पर नियुक्त कर्मचारी, उच्च न्यायालय में समान काम के लिए समान वेतन की मांग करते हुए याचिका दाखिल करते हैं तो ऐसे मुकदमों में मजबूत पैरवी की जाये.

मंतव्य साफ कि जो अस्थायी कर्मचारी हैं,चाहे वे उपनल के माध्यम से हैं या संविदा, नियत वेतन या किसी अन्य तरह से नियुक्त हैं,काम तो उनसे पूरा लेना है. लेकिन काम के अनुरूप वेतन नहीं देना है. 10 जून 2020 को जो पत्र मुख्य सचिव ने जारी किया है, उसमें लिखा है कि दैनिक वेतन, संविदा, नियत वेतन के आधार पर कर्मचारी नियुक्त करने पर प्रतिबंध है और यदि कर्मचारियों की आवश्यकता हो तो बाह्य एजेंसी, सेवा प्रदाता पिछला वर्ष रोजगार वर्ष था तो क्या यह वर्ष, बेरोजगारी वर्ष होगा.

उत्तराखंड सरकार ने वर्ष 2019 को रोजगार वर्ष घोषित किया था. इस साल को लगता है कि वह बेरोजगारी वर्ष बनाना चाहती है. ऐसा इसलिए लगता है क्यूंकि खर्च कम करने के लिए उत्तराखंड के मुख्य सचिव द्वारा जो पत्र जारी किया गया है,उसमें नयी नियुक्तियों पर रोक लगाने की बात कही गयी है.
नियुक्तियों पर रोक ऐसे समय में लगाई जा रही है,जब पूरी दुनिया कोरोना के संक्रमण से जूझ रही है. तमाम व्यवसाय ठप्प पड़ चुके हैं और बड़ी तादाद में लोग अपना रोजगार खो चुके हैं और खो रहे हैं. तमाम अर्थशास्त्री, केंद्र सरकार को सलाह दे रहे हैं कि लोगों की क्रय शक्ति बढ़ाने के लिए राजकोषीय घाटे की परवाह किए बिना, लोगों को नकद धनराशि दे.

जब आर्थिक दशा को सुधारने के लिए इस अति की सीमा से बढ़ कर उपाय करने की जरूरत है,तब रिक्त पदों पर रोक लगाने जैसे कदम दर्शाते हैं कि आम जन को बदहाली से उभारने में उत्तराखंड सरकार की कोई रुचि नहीं है.

नियुक्तियों पर रोक लगाने के पीछे वही घिसा-पिटा तर्क है कि सरकार का खर्च कम करना है. लेकिन उत्तराखंड सरकार के “मितव्ययता” के फटे ढोल की पोल मुख्य सचिव उत्पल कुमार सिंह के 10जून के पत्र से ही खुल जाती है. पत्र के बिन्दु संख्या 2 में मुख्य सचिव,नए पदों को सृजित न किए जाने और नियत वेतन, दैनिक वेतन, संविदा आदि के आधार पर कर्मचारी नियुक्ति पर पूर्ण प्रतिबंध की बात कहते हैं.

लेकिन इसी पत्र के बिन्दु संख्या 5 में मुख्य सचिव लिखते हैं कि विभिन्न विभागों मेंसलाहकार, अध्यक्ष, सदस्य आदि अस्थायी प्रकृति के पदों पर की जाने वाली नियुक्तियों के लिए सहयोगी स्टाफ की व्यवस्था के लिए कोई पद सृजित न किया जाये. मतलब साफ है कि राजनीतिक पहुँच-पहचान वालों और सत्ता के चहेतों को विभिन्न विभागों मेंसलाहकार, अध्यक्ष, सदस्य आदि बनाने पर कोई रोक नहीं होगी. जिनको सिर्फ सत्ता से करीबी की वजह से सरकारी महकमों में सलाहकार, अध्यक्ष, सदस्य आदि नियुक्त किया जाता है,उनमें से हर एक के वेतन, भत्ते, गाड़ी आदि पर प्रति माह लाखों रुपया खर्च होता है.

इस अनावश्यक खर्च के जारी रहने की मंशा,मुख्य सचिव के “व्यय प्रबंधन एवं प्रशासनिक व्यय मेंमितव्ययता हेतु वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिए दिशानिर्देश” शीर्षक वाले पत्र में स्पष्ट होती है. उत्तराखंड सरकार का इरादा समझिए. इरादामितव्ययता कतई नहीं है. मितव्ययता यदि इरादा होता तो सलाहकार, अध्यक्ष, सदस्य से जैसे सजावटी और राजनीतिक तुष्टि के लिए दिये जाने वाले पदों पर नियुक्ति हालात सुधरने तक रोकने के आदेश किए जाते. ऐसे सजावटी पदों पर नियुक्त होने वालों को भाजपा नाम देती है-दायित्वधारी.

इन तथाकथित दायित्वधारियों का यही दायित्व होता है कि वे सरकारी धन और सुविधाओं का उपभोग पूरी मुस्तैदी से करें. मितव्ययता संबंधी मुख्य सचिव के पत्र से यह ध्वनित होता है कि सरकारी विभागों का काम, बिना कर्मचारियों के तो चल सकता है, लेकिन सरकारी सुविधायों के उपभोग के दायित्व के प्रति मुस्तैद दायित्वधारियोंके बिना सरकार एक कदम भी नहीं चल सकेगी ! इसलिए कर्मचारियों को वेतन देना फिजूलखर्ची है और दायित्वधारियों को सरकारी धन और सुविधाओं का उपभोग “आवश्यक शासकीय दायित्व” ! मितव्ययता और आवश्यक खर्च की क्या अद्भुत समझदारी है,मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत और उनके मुख्य सचिव उत्पल कुमार सिंह की ! और देखिये मितव्ययता की बात कौन कर रहा है ! वही सरकार जो 2010 से उत्तराखंड हाई कोर्ट,नैनीताल में पूर्व मुख्यमंत्रियों को दिये गए निशुल्क आवासों का किराया न वसूले जाने का मुकदमा लड़ रही थी. बीते साल, जब उच्च न्यायालय ने निशुल्क आवास का उपभोग करने वाले पूर्व मुख्यमंत्रियों से बाजार भाव से किराया वसूल करने का फैसला सुनाया तो उच्च नयायालय के फैसले को पलटने के लिए उत्तराखंड सरकार बकायदा एक कानून ले कर आ गयी.

उस कानून को उच्च न्यायालय ने असंवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया. इस मामले से साफ है कि सरकार जिन्हें अपना समझती है,उनकी सुख सुविधाओं के लिए वह किसी भी हद तक जा सकती है. लेकिन जो सरकार बनाते हैं यानि मतदाता,वे सरकार के लिए बेगाने हैं और उन्हें रोजगार देना, सरकार को फिजूलखर्ची प्रतीत होता है .

बेरोजगारों को रोजगार देने पर रोक लगाने का आदेश उन मुख्य सचिव उत्पल कुमार सिंह के हस्ताक्षर से निकला है,जिनके बारे में कुछ दिनों पहले समाचार पत्रों में चर्चा थी कि उनके पोस्टरिटायरमेंट सैटलमेंट यानि सेवानिवृत्ति के बाद भी वेतन-भत्ते, गाड़ी-बंगले के सरकारी खर्च का बंदोबस्त हो चुका है.

उत्तराखंड में संभवतः दो-एक अपवादों को छोड़ कर कोई मुख्य सचिव रिटायर हो कर घर नहीं गया बल्कि रिटायरमेंट के बाद नियुक्ति का इंतजाम, सेवानिवृत्ति के महीनों पहल किए जाने का चलन है. विद्रूप देखिये जिन अफसरों को प्रदेश के मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव जैसे भारी-भरकम पदों से रिटायरमेंट के तत्काल बाद सरकारी पद का इंतजाम चाहिए,वे संविदा, नियत वेतन, दैनिक वेतन पर बेरोजगारों की नियुक्ति को सरकारी धन की बरबादी समझते हैं और मितव्ययता के जुमले तले बेरोजगारों के रोजगार पाने के सपने को कुचल डालना चाहते हैं.

जिन मुख्य सचिव ने इस वर्ष मितव्ययता के नाम पर सभी प्रकार की नियुक्तियों और नए पदों के सृजन पर रोक का आदेश निकाला है, उन्हीं मुख्य सचिव ने बीते साल अफसरों को निर्देशित किया था कि यदि संविदा या नियत वेतन पर नियुक्त कर्मचारी, उच्च न्यायालय में समान काम के लिए समान वेतन की मांग करते हुए याचिका दाखिल करते हैं तो ऐसे मुकदमों में मजबूत पैरवी की जाये. मंतव्य साफ कि जो अस्थायी कर्मचारी हैं,चाहे वे उपनल के माध्यम से हैं या संविदा, नियत वेतन या किसी अन्य तरह से नियुक्त हैं,काम तो उनसे पूरा लेना है. लेकिन काम के अनुरूप वेतन नहीं देना है.

10 जून 2020 को जो पत्र मुख्य सचिव ने जारी किया है, उसमें लिखा है कि दैनिक वेतन, संविदा, नियत वेतन के आधार पर कर्मचारी नियुक्त करने पर प्रतिबंध है और यदि कर्मचारियों की आवश्यकता हो तो बाह्य एजेंसी, सेवा प्रदाता से काम लिया जाये. यानि काम तो सरकार करवाना चाहती है, लेकिन कार्मिकों की किसी तरह की ज़िम्मेदारी सरकार नहीं लेना चाहती.

इस तरह बाहरी एजेंसी के जरिये कार्मिक रखने में किसी तरह के नियम-कायदे का पालन नहीं करना होता. इसलिए यह मनमानी और भ्रष्टाचार को जन्म देने वाली व्यवस्था है, जिसको मितव्ययता के नाम पर प्रदेश के बेरोजगारों पर थोपने का इंतजाम कर दिया गया है. सरकारी नियुक्ति में सामाजिक रूप से वंचित तबकों को संवैधानिक सुरक्षा प्राप्त है. लेकिन आउटसोर्सिंग नियुक्तियों में इस तरह की कोई सुरक्षा उन्हें नहीं मिलेगी और वंचित व कमजोर तबकों के रोजगार के लिए अर्ह और इच्छुक युवाओं पर ऐसी मनमानी व्यवस्था की सर्वाधिक मार पड़ेगी.

त्रिवेंद्र रावत सरकार ने जब इस वर्ष बेरोजगारी वर्ष का ऐलान कर दिया है तो 2019 के उसके रोजगार वर्ष की भी चर्चा कर ली जाये.रोजगार वर्ष के दौरान 18 सितंबर 2019 को संयुक्त सचिव कार्मिक ने सभी विभागों के अपर मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव, प्रभारी सचिवों को पत्र भेज कर कहा कि उत्तराखंड में पी.सी.एस. से लेकर जे.ई तक के पदों के लिए जो अधियाचन लोकसेवा आयोग को भेजे जाने हैं, उन पदों पर नए रोस्टर के अनुसार रिक्ततियों का ब्यौरा कार्मिक विभाग को भेजा जाये ताकि लोकसेवा आयोग को भेज कर इन पदों पर भर्ती प्रक्रिया शुरू हो सके.

काम इसमें कुल जमा इतना था कि आर्थिक रूप से कमजोरवर्ग वाला 10 प्रतिशत आरक्षण, पूर्व के ब्यौरे में लगा कर भेज देना था.लेकिन यह काम न हुआ तो दो महीने बाद 07 नवंबर 2019 को पुनः अपर सचिव कार्मिक ने सभी विभागों के आला अफसरों को पत्र भेज कर पुरानी चिट्ठी की याद दिलाते हुए लिखा कि अधिकांश विभागों ने अधियाचन नहीं भेजे.रोजगार वर्ष की हकीकत यह भी थी कि 2019 में बरसों के बाद फॉरेस्ट गार्ड की भर्ती परीक्षा हुई और वह परीक्षा, पेपर आउट होने की चर्चा के कारण सुर्खियों में रही. 2017 के बाद उत्तराखंड में कोई पी.सी.एस. परीक्षा नहीं हुई. सरकारी विभागों में कुल 56 हजार पद रिक्त हैं.

हमारी मितव्ययी सरकार, रोजगार वर्ष में रोजगार दे पायी हो, न दे पायी हो, लेकिन बेरोजगारी वर्ष में बेरोजगारी तो दे ही सकती है !नहीं लेना चाहती. इस तरह बाहरी एजेंसी के जरिये कार्मिक रखने में किसी तरह के नियम-कायदे का पालन नहीं करना होता. इसलिए यह मनमानी और भ्रष्टाचार को जन्म देने वाली व्यवस्था है, जिसको मितव्ययता के नाम पर प्रदेश के बेरोजगारों पर थोपने का इंतजाम कर दिया गया है. सरकारी नियुक्ति में सामाजिक रूप से वंचित तबकों को संवैधानिक सुरक्षा प्राप्त है. लेकिन आउटसोर्सिंग नियुक्तियों में इस तरह की कोई सुरक्षा उन्हें नहीं मिलेगी और वंचित व कमजोर तबकों के रोजगार के लिए अर्ह और इच्छुक युवाओं पर ऐसी मनमानी व्यवस्था की सर्वाधिक मार पड़ेगी.

त्रिवेंद्र रावत सरकार ने जब इस वर्ष बेरोजगारी वर्ष का ऐलान कर दिया है तो 2019 के उसके रोजगार वर्ष की भी चर्चा कर ली जाये.रोजगार वर्ष के दौरान 18 सितंबर 2019 को संयुक्त सचिव कार्मिक ने सभी विभागों के अपर मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव, प्रभारी सचिवों को पत्र भेज कर कहा कि उत्तराखंड में पी.सी.एस. से लेकर जे.ई तक के पदों के लिए जो अधियाचन लोकसेवा आयोग को भेजे जाने हैं, उन पदों पर नए रोस्टर के अनुसार रिक्ततियों का ब्यौरा कार्मिक विभाग को भेजा जाये ताकि लोकसेवा आयोग को भेज कर इन पदों पर भर्ती प्रक्रिया शुरू हो सके. काम इसमें कुल जमा इतना था कि आर्थिक रूप से कमजोरवर्ग वाला 10 प्रतिशत आरक्षण, पूर्व के ब्यौरे में लगा कर भेज देना था.लेकिन यह काम न हुआ तो दो महीने बाद 07 नवंबर 2019 को पुनः अपर सचिव कार्मिक ने सभी विभागों के आला अफसरों को पत्र भेज कर पुरानी चिट्ठी की याद दिलाते हुए लिखा कि अधिकांश विभागों ने अधियाचन नहीं भेजे.

रोजगार वर्ष की हकीकत यह भी थी कि 2019 में बरसों के बाद फॉरेस्ट गार्ड की भर्ती परीक्षा हुई और वह परीक्षा, पेपर आउट होने की चर्चा के कारण सुर्खियों में रही. 2017 के बाद उत्तराखंड में कोई पी.सी.एस. परीक्षा नहीं हुई. सरकारी विभागों में कुल 56 हजार पद रिक्त हैं. हमारी मितव्ययी सरकार, रोजगार वर्ष में रोजगार दे पायी हो, न दे पायी हो, लेकिन बेरोजगारी वर्ष में बेरोजगारी तो दे ही सकती है !

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